कोई आधार ढूंढे तो
मुझे मेरी माँ दिखती है
मुझमे संस्कार ढूंढे तो
मुझे मेरी माँ दिखती है
मेरे चेहरे की हर खुशियाँ
मेरे अन्दर का एक इंसा
गढ़ा है खुद को खोकर जो
मुझे मेरी माँ दिखती है
कोई ढूंढे तो क्या ढूंढे
इस दुनिया में एक नेमत को
बहुत साबित कदम हरदम
मुझे मेरी माँ दिखती है
अजान के बोल से जगती
लिए मुस्कान ओंठो पर
शुबह से शाम तक चंचल
मुझे मेरी माँ दिखती है
दिया हिम्मत ज़माने में
रुका जब भी थक कर मै
जब कोई राह नहीं दिखता
मुझे मेरी माँ दिखती है
रिश्तो के चेहरों में
शिकन आ हीं जाते हैं
जो बदले नहीं कभी
मुझे मेरी माँ दिखती है ..
अरशद अली
6 comments:
दिया हिम्मत ज़माने में
रुका जब भी थक कर मै
जब कोई राह नहीं दिखता
मुझे मेरी माँ दिखती है
बहुत ही संवेदनशील रचना है...अरशद....बहुत ही बढ़िया लिखा है...
आपकी कविता अच्छी है है . माँ के बारे में कुछ साहित्य आप निम्न लिंक पर भी देख सकते हैं -
http://pyarimaan.blogspot.com/2011/04/blog-post_04.html
अगर आप पसंद करें तो आप हिंदी ब्लॉगर्स फोरम इंटरनेश्नल के सदस्य भी बन सकते हैं ,
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eshvani@gmail.com
अच्छा लगा आपके विचार जानकर ..
माँ के लिए जितना कहा जाए कम लगता है... भावनप्रधान रचना ...
बहुत सुन्दर रचना ....
दिया हिम्मत ज़माने में
रुका जब भी थक कर मै
जब कोई राह नहीं दिखता
मुझे मेरी माँ दिखती है ....
बहुत खूब ... सच हैमाँ तो होती ही ऐसी है ... बहुत लाजवाब लगी आपकी ये रचना ... माँ को समर्पित सुंदर रचना ...
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