
है आसमान की सीमा
जनता है मन ये मेरा
पर अपनी भी उमंगें
भरती है यू कुलाचे
फिर थक कर दूर जाकर
नहीं ख़त्म होता अम्बर
दिखता है फिर नीचे
सब कुछ छोटा ज़मीं पे
और थक सा जाता पर भी
जाना है अपने घर भी
है आसमान सुन्दर
पर ज़मीं से दूर होकर
फूलने लगती हें सांसे
और लौटता हूँ डर कर
कि मन बड़ा है चंचल
ले जा रहा है उपर
सब छूटते हें नीचे
वो घोंसले दरखतें
है बोध मेरे मन को
मिलेगा सुकून उड़ कर
पर बैठेंगे कहाँ थक कर
क्या खायेंगे चुन कर
और सोंच कर ये सब
आ जाता हूँ नीचे
कि दुनिया बस यहीं है
उड़ना भी दायरे में
जब जन्म है यहीं का
तो मरना भी यहीं पे .
अरशद अली
arshad.ali374@gmail.com (मेरी (हिंदी) ग़लतियों को मेरे मेल पर बतलायेंगे तो मेरी हिंदी भी हिंदी जैसी हो जायेगी-एक आग्रह )