Sunday, March 20, 2011

तुम तो लक्ष्मी थी...सारा बैभव ले गयी

शांत घर,सिर्फ तुम्हारे जाने से नहीं हुआ
तुम तो लक्ष्मी थी...सारा बैभव ले गयी

एक सिंदूर पड़ते हीं
तुम्हारा गावं बदल गया
और बदल गयी तुम्हारी पहचान ..

मुझे याद है,
तुम्हारे आने पर ,तुम्हारी माँ
अकेले जश्न मनाई थी
और मेरी माँ चिंतित दिखी थी ..

कल वो भी रो पड़ी थी
शायद वो तुम्हारे स्नेह का
उमड़-घुमड़ था
या एक बोझ उतर जाने के ख़ुशी

अब सब शांत है और कान चौकन्ना,
तुम्हारी एक आवाज़ सुनने को ..
जो शायद न मिले
और मिले भी तो सजी हुई
किसी और के धुन में ..

अब तो तुम्हारा इंतज़ार भी
किसी और के लिए है
नहीं तो बचपन में घंटों
अपने बाबा का बाट जोहती थी

तुम्हारे हठ से झुंझलाने के क्रम में भी
तुम हठ करना नहीं भूलती थी
और मै पूरा करने से नहीं चूकना चाहता था
अब उसी हठ को तरसता हूँ ...

तुम बेटी थी,तुम बहन थी
और कभी-कभी माँ जैसा दुलार भी दिया था तुमने
जब मै बुखार से तपता था
बेटी,बहन को बिदा किया ,समाज के नियमों पर
मगर नन्ही हांथों वाली
उस माँ को तरसता हूँ

प्रतेक दिन तुम नयी जिम्मेदारियों को
समझते जाओगी ,मुझे पूर्ण विश्वास है
और मै जर्जर तुम्हे बड़ी होते हुए देखूंगा
और एक दिन तुम केंद्र में होगी
जैसे आज तुम्हार माँ है ..
जिसने मुझे-तुम्हे आज तक सहेजा..और आगे भी सहेजेगी ..

आज तुम उर्वर हो
और मै वो आम का पेड़,
जिसपर वो आम नहीं
जिससे मेरी पहचान थी....

तुम तो लक्ष्मी थी ....
सारा बैभव ले गयी ........


अरशद अली

3 comments:

Saleem Khan said...

nice post

call me at 9838659380

saleem

शिक्षामित्र said...

यह एक मार्मिक कविता है। होने-न होने का मर्म वही जानता है जो इन दोनों के बीच रहा है।

Patali-The-Village said...

बहुत मर्म स्पर्शी रचना| धन्यवाद|