Sunday, December 23, 2012

मैंने एक अंधे से पूछा ...... तुम देखते कैसे हो ?


मैंने एक अंधे से पूछा,
तुम देखते कैसे हो ?

अंधे ने कहा ...
छोडो देखता कैसे हूँ ,
ये बताओ देखना कैसे है ?

यदि आँखों  से देखना होता है तो 
लोंगों  की आँखों से देखता हूँ 
मगर इससे चीजें धुंधली दिखती है 
और यदि साफ़ देखना होता है तो 
अपनी अनुभवों से देखता हूँ 
इसके अलावा कभी-कभी स्पर्श से 
कभी-कभी पुरानी यादों से 
और कभी -कभी आवाज़ भी देखने में मदद करतीं हैं।

मैंने कहा, मै  समझ नहीं पाया 
अंधे ने तुरंत पूछा,
आप समझते कैसे हैं ?

मैंने कहा ये कैसा सवाल है?
इसका उत्तर तो तुम भी जानते हो ...
अंधे ने कहा ...हाँ जनता हूँ 
मगर देखना चाहता हूँ कि  आप 
समझने के कौन से तरीके को स्वीकार करतें हैं
और मेरे इस देखने की क्रिया में 
आपके  शब्द मददगार होंगे।

आप जो भी कहेंगे वो मेरे ज़ेहन में 
एक तश्वीर बनाएगा 
और मै  जान जाऊंगा स्थितियों को 
जो आप देख कर जानते हैं।

मैंने पूछा,
तुम अंधे होकर भी देख लेते हो तो 
तुम्हारे अंधे होने से क्या फर्क पड़ता है?

अंधे ने धीरे से कहा .....
फर्क  मुझे नहीं पड़ता,फर्क  तो आँख वालों को पड़ता है 

कुछ सहानुभूति दिखाते  हैं ,कुछ घृणा करतें हैं 
कुछ अफ़सोस जतातें हैं,कुछ मजाक उडातें हैं
और मै  देख लेता हूँ अंधे होने के बावजूद 
उनके विविध व्यवहार को 
और फर्क उन्हें हीं पड़ता है ,मुझे नहीं।

मै  सन्न रह गया ............

अंधे ने थोड़ी देर बाद कहा ....
साहब, पांचो ज्ञानिन्द्रियाँ चरम उपलब्धी  नहीं ....
यदि ज्ञानिन्द्रियों पर नियंत्रण ना हो तो
पूर्ण होना अनिवार्य नहीं ..
पूर्णता अनुभव  करना ज्यादा अनिवार्य है।

मुझे आँख नहीं मगर देखने का सूछ्म ज्ञान है
वहीँ कई आँख वालों को आँख होते हुए भी ....
 देखने का सूछ्म ज्ञान नहीं।

मै निरुत्तर बस सुनता चला गया .....
मेरा एक प्रश्न कई प्रश्नों को जन्म दे गया ....

तश्वीर गूगल के मदद से 
----अरशद अली----



10 comments:

Shalini kaushik said...

बहुत सार्थक व् सुन्दर भावाभिव्यक्ति .बधाई बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति नारी महज एक शरीर नहीं

vandana gupta said...

तभी तो इस देश मे आँख से अंधी सरकार का राज है।

Soni Kumari said...

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Asha Lata Saxena said...

सार्थक और अच्छी रचना |
आशा

Patali-The-Village said...

बहुत सार्थक व् सुन्दर भावाभिव्यक्ति|

कुमार राधारमण said...

इन्द्रियां स्वयं में कुछ भी नहीं। वे बस सहायक हैं।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण,
ज्यों कहीं फिसल गए।
कुछ आनंद, उमंग,उल्लास तो
कुछ आकुल,विकल गए।
दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए।।
शुभकामनाये और मंगलमय नववर्ष की दुआ !
इस उम्मीद और आशा के साथ कि

ऐसा होवे नए साल में,
मिले न काला कहीं दाल में,
जंगलराज ख़त्म हो जाए,
गद्हे न घूमें शेर खाल में।

दीप प्रज्वलित हो बुद्धि-ज्ञान का,
प्राबल्य विनाश हो अभिमान का,
बैठा न हो उलूक डाल-ड़ाल में,
ऐसा होवे नए साल में।

Wishing you all a very Happy & Prosperous New Year.

May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!

ZEAL said...

पांचो ज्ञानिन्द्रियाँ चरम उपलब्धी नहीं ....
यदि ज्ञानिन्द्रियों पर नियंत्रण ना हो तो
पूर्ण होना अनिवार्य नहीं ..
पूर्णता अनुभव करना ज्यादा अनिवार्य है..

lovely.

.

Anonymous said...

Good

Anonymous said...

O